गुरुदेव जो मेरे सर्वस्व हैं उनको बन्दन-अभिनन्दन जो ब्रम्हा, विष्णु और महेश हैं बल्कि जो प्रत्यक्ष परब्रम्ह एवं परमसत्य हैं।। tasmai shri gurave namah.
मित्रों, इस संसार में वह गुरू ही होता है जो हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। अज्ञान से ज्ञान की ओर उन्मुख करने वाला होता है। अतः इस कालजयि गुरू शब्द की जितनी भी महिमा का गान करें वह उतना ही कम है। आज के आलेख में हम गुरू स्तुति में संस्कृत श्लोकों का वर्णन यहां करेंगे।।
गुरु स्तुति।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही शिव है। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है। उन सद्गुरु को प्रणाम है।।
अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
अर्थ:- गुरु अखण्ड हैं, सकल ब्रह्माण्ड में समाया है, चर-अचर में तरंगित है। उस (प्रभु) के तत्व रूप को जो मेरे भीतर प्रकट होकर मुझे साक्षात हरिदर्शन करा दे, उन गुरु को मेरा शत् शत् नमन है। अर्थात् वही पूर्ण गुरु है।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थ:- अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे हुए जीव की आँखें जिसने ज्ञानरूपी काजल की श्लाका से खोली हैं, ऐसे श्री सदगुरू को नमन है, प्रणाम है।।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥
अर्थ:- धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण और सभी शास्त्रों में से तत्त्वों का ज्ञान देनेवाले गुरु कहे जाते हैं। ऐसे गुरुदेव को मेरे शत-शत नमन है।।
नमोस्तु गुरुवे तस्मै, इष्टदेव स्वरूपिणे।
यस्य वाग्मृतम् हन्ति विषं संसार संज्ञकम्।।

अर्थ:- उन गुरूदेव रूपी इष्टदेव को वन्दन है, जिसकी अमृत रूपी वाणी अज्ञानता रूपी विष को नष्ट कर देती है।।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरुर्निगद्यते॥
अर्थ:- जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप मार्ग पर चलते हैं। हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध कराते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्॥
अर्थ:- गुरु के पास हमेशा उनसे नीचे के आसन पे बैठना चाहिए। गुरु आते हुए दिखे, तब खड़े होकर उनका सम्मान करना चाहिए एवं उनके बैठने के बाद उनकी आज्ञा से यथेष्ट आसान पर बैठना चाहिए।।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्॥

अर्थ:- बहुत कहने से क्या? करोडों शास्त्रों से भी क्या? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है।।
प्रेरकः सूचकश्चैव वाचको दर्शकस्तथा।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः॥
अर्थ:- प्रेरणा देनेवाले, सूचना देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है।।
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
अर्थ:- “गु” कार याने अंधकार और “रु” कार याने प्रकाश। जो अंधकार का निरोध ज्ञान का प्रकाश देकर करता है, वही गुरु कहा जाता है।।

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥
अर्थ:- शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए।।
देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।
अर्थ:- भाग्य रूठ जाने पर गुरू रक्षा करता है। गुरू रूठ जाये तो कोई रक्षक नहीं होता। गुरू ही रक्षक है, गुरू ही शिक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।।
आप सभी सनातनियों को गुरुपूर्णिमा की हार्दिक एवं मंगल शुभकामनायें।।
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