देवार्चन के लिए संग्रहणीय द्रव्य, भाग – २.।।

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Devarchana Hetu Sangrahaniya Dravya Part-2

देवार्चन के लिए संग्रहणीय द्रव्य, भाग – २.।। Devarchana Hetu Sangrahaniya Dravya. Part – 2.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, आज हम बात करेंगे किसी भी तरह की पूजा पाठ अर्चना वंदना या अनुष्ठान में लगने वाले सामग्रियों के विषय में । किस प्रकार की और कौन-कौन सी सामग्री आवश्यक होती है ।।

किसी भी तरह की पूजा पाठ के लिए । आज हम छोटे से छोटे और बड़े से बड़े अनुष्ठान में आवश्यक सामग्रियों के विषय में चर्चा करेंगे और जानेंगे कि वह क्या होता है और क्यों लगता है ।।

१.पञ्चगव्य:- गोबर, गोमूत्र, गोघृत, गोदुग्ध एवं गोदधि यथाविधि ।।
२.पञ्चामृत:- गोदुग्ध, गोघृत, गोदधि, मधु एवं शर्करा (गुड़) ।।
३.पञ्चमेवा:- दाख, छुहारा, बादाम, नारियल एवं अखरोट आदि ।।
४.नवग्रह समिधा:- अर्क, पलास, खैर, अपामार्ग, गूलर, पीपल, शमी, कुशा एवं दूर्वा ।।

५.पूजोपकरण:- गन्ध (चन्दन), पुष्प, पुष्पमाला, तुलसी, विल्वपत्र, परिमल द्रव्य:- सिन्दूर, अबीर, इत्र एवं अष्टगन्ध आदि ।।

ऋतुफल:- ऋतु के अनुसार फलों का संग्रह करना चाहिए । कुछ फल सभी ऋतुओं में प्राप्त होते हैं, किन्तु कुछ फल ऋतु विशेष में मिलते हैं उन सभी का संग्रह देवपूजन हेतु आवश्यक होता है ।।

नागरवेल का पान, सुपारी, इलाचयी, लवंग, मिष्टान्न, वस्त्र, उपवस्त्र, रक्षा सूत्र, धोती, साड़ी, गमछा एवं अन्य सौभाग्य द्रव्य आभूषण आदि यथाशक्ति ।।

उपर्युक्त वस्तुओं का यथाशक्ति संग्रह करना चाहिए । किन्तु हम देवार्चन कर रहे हैं अतः सुन्दर; उत्तमोत्तम संक्षिप्त किन्तु उपयोगी हो, ऐसी वस्तुओं का ही संग्रह करना चाहिए । इस बात का सतत् ध्यान रखना जरुरी है ।।

कर्मोपयोगी सप्तधान्यादि विवरण:- पूजोपकरण में सप्तधान्य, सप्तमृत्तिका आदि का प्रयोग किया जाता है । निम्नांकित कारिकाओं में उनका संग्रह है: –

१.सप्तधान्य:- यवगोधूमधान्यानि तिलाः कंगुस्तथैव च ।
श्यामकं चणकं चैव सप्तधान्यमुदाहृतम् ।।

अर्थ:- जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना और सावां ये सप्तधान्य कहलाते हैं ।।

२.सर्वोषधि:- मुरा मांसी बचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् ।
सठी चम्पकमुस्तं च सर्वौषधिगणः सृतः ।। (सर्वाभावे शतावरी)

अर्थ:- मुरा, जटामांसी, बच, कुण्ठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी, चम्पक, मुस्ता ये सर्वोषधि कहलाती हैं । अगर यह वस्तुयें उपलब्ध न हो पायें अथवा न मिले तो शतावरी अवश्य रखें ।।

कुष्ठं मांसी या हरिद्रेद्वे मुरा शैलेयचन्दनम् ।
बचा कर्पूरमुस्ता च सर्वौषधयः प्रकीर्तिता ।।

अर्थ:- कूठ, जटामांसी, मुरा, चन्दन, बच, कपूर, मुस्ता, दारु हल्दी और हल्दी । यह भी सर्वोषधि के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है ।।

३.सप्तमृद:- गजाश्वरथ्यावल्मीके संगमाद् गोकुलाद् दात् ।
राजद्वारप्रदेशाच्च मृदमानीय निक्षिपेत् ।।

अर्थ:- घुड़साल, हाथीसाल, बाँबी, नदियों के संगम, तालाब, राज द्वार और गोशाला- इन सात स्थानों की मिट्टी को सप्तमृत्तिका कहते हैं ।।

४.पञ्चपल्लव:- अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षा: न्यग्रोधश्चूत एव च ।
पञ्चकं पल्लवानां स्यात् सर्वकर्मसु शोभनम् ।।

अर्थ:- पीपल, गूलर, पाकड़, बरगद और आम की पत्तियों को पञ्चपल्लव कहा जाता है ।।

५.पञ्चरत्न:- सुवर्णं रजतं मुक्ता लाजवर्तः प्रबालकम् ।
अभावे सर्वरत्नानां हेम सर्वत्रा योजयेत् ।।

अर्थ:- सोना, चांदी, मोती, लाजावर्त और मूंगा ये पञ्चरत्न कहे जाते हैं । इतना न हो तो स्वर्ण अथवा द्रब्य से भी सब संभव है ।।

६.मधु त्रय:- आज्यं क्षीरं मधु तथा मधुरत्रयमुच्यते ।।

अर्थ:- घी, दूध तथा मधु ये तीनों मधुत्रय कहते जाते हैं ।।

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