श्राद्धपक्ष में पिंडदान गयाजी में क्यों किया जाता है?

Pitripakshs And Gaya
Pitripakshs And Gaya

श्राद्धपक्ष में पिंडदान गयाजी में क्यों किया जाता है? Pitripakshs And Gaya.

मित्रों, आखिर बिहार के गया में ही क्यों किया जाता है पिंडदान? आज हम इस विषय पर पौराणिक कथाओं के माध्यम से विस्तार पूर्वक बातें करेंगे और साथ ही गया जी में किए श्राद्ध के महत्व के भी विषय में बात करेंगे। क्योंकि अनेकों जगहों के विषय में लोग अक्सर कहते हैं, कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण श्राद्ध स्थली है। परंतु उनका कहना भी सही ही है।।

क्योंकि जो लोग गयाजी में नहीं जा सकते उनके लिए अपने नजदीकी क्षेत्रों कि श्राद्ध स्थली ही प्रधान मानी गयी है। सनातन धर्म कि मान्यतानुसार गया में श्राद्ध करवाने से व्यक्ति की आत्मा को निश्चित तौर पर शांति मिलती है। इसलिए ही इस तीर्थ को बहुत श्रद्धा और विश्वास के साथ गया जी कहा जाता है।।

पितृपक्ष में गया जी में अपने पितरों का पिंड दान।। Pitripakshs me Gaya jee ka Pind daan.

मित्रों, सनातन संस्कृति के अनुसार मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए गयाजी में पिंडदान किया जाता है। पितृपक्ष के दौरान पितरों को तर्पण भी इसीलिए ही दिया जाता है। ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले और उनकी सद्गति हो सके। कहा जाता है, कि एक बार जो व्यक्ति गया जी में जाकर पिंडदान कर देता है। उसे फिर कभी पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध या पिंडदान करने की जरूरत नहीं पड़ती है।।

अधिकतर लोगों की यह चाहत होती है, कि मृत्यु के बाद उनका पिंडदान गया जी में हो जाए। सनातन धर्म में यह मान्यता यह है, कि गयाजी में श्राद्ध करवाने से व्यक्ति की आत्मा को निश्चित तौर पर शांति मिलती ही है। इसलिए ही इस गया तीर्थ को बहुत श्रद्धा और विश्वास के साथ गया जी कहा जाता है।।

गया तीर्थ एवं गयासुर की पौराणिक कथा।। Gaya Ji And Gayasur Histoy, Gaya Ji And Gayasur Story.

वैदिक सनातनी पुराणों के अनुसार गया भस्मासुर के वंशज गयासुर के शरीर पर बसा हुआ स्थल है। ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे, उस समय उनसे असुर कुल में एक गया नामक असुर की रचना हो गई। गया असुरों की संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था। इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी। वह सभी देवताओं का सम्मान और आराधना करता था। उसके मन में एक बात सदैव खटकती रहती थी। वह सोचा करता था कि भले ही मेरा स्वभाव संत प्रवृति का है। लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिल पायेगा। इसलिए क्यों न अच्छे कर्मो से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग प्राप्ति हो।।

एक बार की बात है, इसी प्रकार का विचार करते हुए गयासुर दैत्य ने भगवान नारायण श्रीहरि विष्णु का कठोर तप किया। गयासुर ने कठोर तप करके भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया। भगवान ने गयासुर से वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा। कहा, कि हे भगवन! आप मेरे शरीर में वास करें। क्योंकि जो कोई भी मुझे देखे तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं। वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में भी उत्तम से उत्तम स्थान कि प्राप्ति हो सके।।

भगवान श्री हरि ने तथास्तु कह दिया। भगवान नारायण से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा। जो भी उसे देख लेता उसके सभी पाप नष्ट हो जाते और वह स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इसके बाद लोगों में पाप से मिलने वाले दंड का भय ही खत्म हो गया। लोग और अधिक पाप करने लगे। जब उनका अंत समय आता तो वह गयासुर का दर्शन कर लेते थे। जिससे सभी पापिओं को अपने सभी पापों से मुक्ति हो जाती थी। इस समस्या का समाधान ढूंढने में सभी देवताओं कि बुद्धि ने जबाब दे दिया।।

गयासुर के इस कर्म से यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई। कोई भी घोर पापी गयासुर के दर्शन कर लेता और अपने सभी पापों से सहज ही मुक्त हो जाता। यमराज उसके कर्मो के अनुसार उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग चला जाता। धर्मराज को कर्मो का हिसाब रखने में संकट हो गया था। यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को अभी न रोका गया तो वह आपके बनाये विधान को ही समाप्त कर देगा। जिस विधान में आपने सभी को उनके कर्मो के अनुसार फल प्रदान करने की व्यवस्था दी है। पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग के अधिकारी हो जाते हैं।।

ब्रह्माजी ने उस समय एक उपाय निकाला। उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे अधिक पवित्र है इसलिए मैं तुम्हारी पीठ पर बैठकर सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा। उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गयासुर सहर्ष तैयार हो गया। उसके उपरान्त गयासुर धरती पर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। गया तीर्थ भी इसलिए पांच कोस में फैला हुआ है। समय के साथ इस स्थान को गया जी पितृतीर्थ के रूप में जाना जाने लगा। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ एक पत्थर से गयासुर को दबाकर बैठ गए। इतने भार के बावजूद भी वह अचल रहा और वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था। देवताओं को चिंता हुई, उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे भगवान श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल ही रहेगा। तब श्री हरि भी उसके शरीर पर आकर बैठ गये।।

भगवान श्री विष्णु को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब देवता और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं। सभी जगह घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा। लेकिन मुझे श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता। इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें। भगवान श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए। उन्होंने गयासुर से कहा अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो।।

गयासुर ने कहा- “हे नारायण! मेरी इच्छा है, कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें। जिसके फलस्वरूप यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए।” भगवान श्री विष्णु ने कहा- गया तुम धन्य हो, तुमने जीवित अवस्था में भी लोगों के कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो। तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं और अति प्रशन्न भी हैं।।

तब भगवान श्री हरि ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। और इस क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा। मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा। गया तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। और साथ ही वहा भगवान “श्री विष्णुजी” ने अपने पैर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर में स्थित है। गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में एवं अक्षयवट के नीचे किया जाता है। वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है।।

गया जी का माहात्म्य।। Gaya Ji Ka Mahatmya. Gaya Importance.

गया जी का महत्व बहुत अधिक है। कहा जाता है, कि जिस व्यक्ति का पिंडदान गया जी में हो जाता है। उसकी आत्मा को निश्चित तौर पर शांति मिलती है। विष्णु पुराण में कहा गया है, कि गया में श्राद्ध हो जाने से पितरों को इस संसार से मुक्ति मिलती है। गरुण पुराण के मुताबिक गया जी जाने के लिए घर से गया जी की ओर बढ़ते हुए कदम पितरों के लिए स्वर्ग की ओर जाने की सीढ़ी बन जाते हैं।।

पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की।। Pindadaan Ki Shuruaat Kisane Aur Kab Ki.

मित्रों, यह विषय तो उतना ही कठिन है जितना कि वैदिक धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। गया के स्थानीय पंडों का कहना है, कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था। महाभारत के “वन पर्व” में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। भगवान श्रीराम ने महाराज दशरथ का पिण्ड दान गया में किया था। गया के पंडों के पास जो साक्ष्य है उनसे स्पष्ट है, कि मौर्य और गुप्त वंशीय राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में ही पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इसके संदर्भ में भी एक कथा प्रचलित है।।

भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे थे। भगवान श्रीराम श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने चले गये। तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी थी। फल्गू नदी के तट पर अकेली बैठी माता सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी ने वहा उपस्थित फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। जब श्रीराम जी आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई। परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया गया था।, उन सबको सामने लाया गया। उनमें से पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली।।

उन सबके झूट से क्रोधित होकर माता सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी। जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का। और वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने एवं लंबी आयु का वरदान दिया। तब भी से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं। जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू नदी के तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की भी परंपरा है।।

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